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Friday, November 1, 2024

मजबूरियां

 "गरीब पर ज़ुल्म हमें कतई बर्दाश्त नहीं है। हर गरीब को हक मिलेगा यह, हमारा वादा है।" 
कहकर श्री दुष्यंत वाल्कर उर्फ़ 'चाचा जी' ने अपना भाषण पूरा किया। भाषण के दौरान मैदान पर सजी कुर्सियों की पहली कतार में बैठा उनका सेक्रेटरी शशांक अपने नियोक्ता को अपनी जगह वापस लेता देख सजग हो गया। कुछ २० मिनट बाद नेता जी का काफिला अगली मंज़िल की ओर रवाना हुआ।
"हां भाई शशांक, कैसा लगा भाषण?" नेता जी ने पूछा।
हमेशा की तरह इस बार भी शशांक ने उनके भाषण का बड़ा हिस्सा अपने ख्यालों में खोए हुए निकाल दिया था। जो थोड़ा बहुत सुना था उसी को पकड़ के तारीफ के पुल बांधना शुरू कर दिया। नेताजी अपने वक्तव्य की ऐसी प्रशंसा सुन फूले नहीं समाते। आज अपने 'गरीब के हक' बताने वाले भाषण के बाद नेताजी को शहर में एक बड़ी ज़मीन पर करोड़ों का माॅल बनाने के लिए बिल्डर के साथ मीटिंग के लिए जाना था। सेक्रेटरी ने समय सारणी देखकर उन्हें अगला पड़ाव याद दिलाया। माॅल का काम अगले हफ्ते से शुरू होना प्रस्तावित था। मीटिंग हुई, मिठाइयां बंटी और हो गया कार्य का श्री गणेश। 

रात को थके हारे घर आए शशांक ने मुंह हाथ धोए, भोजन किया और बैठ गया अपनी मेज़ पर। बचपन से कविताओं का शौक लिए बड़े हुए शशांक को परिवार के आर्थिक स्थिति देखते हुए स्नातक के पश्चात अपने सपनों पर काम करने का समय ही ना मिला। पहले एक एन.जी.ओ के स्थापक और फिर नेताजी के सेक्रेटरी बनने का मौका छोड़ना उसने मुनासिब न समझा। पैसे की अब घर में वैसी परेशानी ना रही। नेता जी का सेक्रेटरी होने के नाते सुविधा, सम्मान आदि जीवन में भरपूर था परंतु जब कभी इस काम के संबंध में किसी भी तरह की दिलचस्पी ढूंढने के लिए मन को टटोला, तो मन खाली ही पाया। नौकरी छोड़ देना एक छोटी बहन और मां की ज़िम्मेदारी निभाने में मददगार ना होता। इसी से उसे अपने स्नातकोत्तर की भी राशि जुटाने में मदद मिली और अब अपनी बहन की पढ़ाई के लिए भी। लेकिन शौक भी इतनी आसानी से कहां छूटते हैं? हर बार घर पर लौटते ही या तो अपनी कलम पकड़ कागज़ शब्दों से रंगने लगता या अपनी कविताओं की किताबें लिए बैठ जाता। नेताजी के सेक्रेटरी बनकर जो अपने आसपास देखता उससे शशांक को अपनी कविताएं लिखने में खास मदद मिलती। भ्रष्टाचार, बेईमानी, धार्मिक व जातीय आधार पर समाज के बंटवारे की सच्चाई नज़दीक से देखने को मिलती। किस तरह गरीब को उसका हक दिलाने की बात करने वाले गरीब को लुभाकर, उसके मत से चुने जाने पर उस ही गरीब का शोषण करते, यह सब कुछ जानने को मिलता। पर इन पर व्यंग्यात्मक कविताएं लिखने के अलावा शशांक ने कुछ करना सही न समझा। समझता कैसे? अपनी सही गलत की पहचान को ज़िम्मेदारियां से भरी जीवन की गठरी में इतना नीचे रख दिया था, कि अब निकालने की हिम्मत ना बची थी; सो सब देखते हुए भी चुप ही रह गया और काम करता चला गया।
अगले हफ्ते माॅल का काम जोरों शोरों से शुरू हुआ। हर थोड़े दिन में नेता जी या उनके किसी करीबी के साथ कार्य का मुआयना करने शशांक पहुंचता। मॉल की पहली मंज़िल तैयार होने में करीब 3 महीने का समय लगा। कई बार निर्माण कार्य की स्थिति शशांक को कुछ ठीक ना लगती पर यह सोचकर चुप रह जाता कि उसका इस सब से क्या लेना देना। वैसे भी नेताजी ने तो यह कमाने के लिए ही बनवाया है, तो उसमें अच्छा क्या और बुरा क्या?

कुछ और महीने बीत गए। माॅल की तीसरी मंज़िल का कार्य भी प्रारंभ हो चुका था। अब उसमें बनी दुकानों को किराए पर चढ़ने के लिए बुकिंग शुरू हो चुकी थी। एक सुबह जब शशांक नाश्ता कर रहा था, उसे ऑफिस से फोन आई जिसमें पता पड़ा की आपातकालीन स्थिति बनाई है, ऑफिस जल्दी पहुंचने की ज़रूरत है। वहां पहुंचने पर पता चला कि माॅल की तीसरी मंज़िल निर्माण पूरा होने से पहले ही ध्वस्त हो गई है। जल्दी से नेता जी के पास पहुंच गए। वह अपने ठंडे ऑफिस में चाय नाश्ता ले रहे थे। 
"शशांक जी, अच्छा हुआ आप जल्दी आ गए। आपने बुरी खबर तो सुन ही ली होगी?..."
शशांक ने हां में सिर हिला दिया।
"... अब हम आपको ज़रा अच्छी खबर देते हैं। जो मंज़िल गिरी उसमें से सभी मज़दूरों को निकाल लिया गया है। बस एक ही न बच सका... उसकी मौत हो गई..." अपनी चाय की चुस्की लेते हुए नेता जी आगे बोले, "इसलिए हमने उसके देहांत का शोक जताने के लिए कुछ प्रेस वालों को बुलवाया है। आप ज़रा तैयार रहें, वह आते होंगे।"

यह कुछ नया न था। कई बार शशांक ने नेताओं को कार्यों में लोगों की जान जाते देखा था। पर नेताजी की बेफिक्री उसे ज़रा चुभ रही थी। खैर, वह क्या ही कर सकता था? वह प्रेस वालों का इंतजार करने लगा। प्रेस वाले आए। नेताजी ने मृतक की अकाल मृत्यु का शोक जताया, मुआवज़े का ऐलान किया व उनके जाने के बाद मृत मज़दूर की पत्नी मामले को कोर्ट में ना ले जाए इसलिए उसके दोनों बच्चों को अपने ही विद्यालय में दाखिला देने व शिक्षा का पूरा खर्चा उठाने का प्रस्ताव भी दिया। मजबूरी के आगे न्याय की चाहत अक्सर दम तोड़ देती है। गरीब औरत इसे अपनी नियति जान, अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रख इस प्रस्ताव व मुआवज़े को लेकर अपने दुख को पी गई। बात दब गई।

करीब डेढ़ साल बीत गया। नेताजी को अपने विद्यालय की एक प्रतियोगिता में मुख्य अतिथि बनने का न्योता आया। नेताजी तुरंत मान गए और उनकी समय सारणी में यह आयोजन जोड़ दिया गया। प्रतियोगिता के दिन शशांक नेताजी संग संस्थान में पहुंचा। ऊंची इमारतें, बड़ी-बड़ी कक्षाएं, हर सुविधा से लैस,‌ अंग्रेज़ी और अन्य विदेशी भाषाएं बोलते छात्र-छात्राएं, सब कुछ था उस‌ विद्यालय में। जो कुछ ना था, तो वह थी सच्चाई, उस संघर्ष की, जो इन इमारतों को बनाने वाले हाथों के नसीब में होता है। शशांक की यह सोच हंसी निकल आई। 
"क्या हुआ शशांक? कुछ हास्यास्पद हो तो हमें भी हंसाओ।" विद्यालय के सभागार में सबसे आगे की कतार में बैठे नेता ने कहा।
"नहीं नहीं सर। मैं तो बस सोच रहा था कि यह विद्यालय काफी अच्छा है।"
"वह तो है। हमने बहुत देखभाल कर बनवाया है। अरे भाई, स्कूल अच्छा नहीं होगा तो अमीरों के बच्चे कैसे आएंगे और फिर हमारी कमाई कैसे होगी?"
शशांक को आज कविता लिखने के लिए नया मुद्दा मिल गया। वह तो इतने में ही खुश हो गया। प्रतियोगिता का समय हुआ। मुख्य अतिथि का भाषण हुआ और फिर स्पर्धा के नियम पढ़े गए। प्रतियोगिता कुछ यूं थी कि सभी प्रतिभागियों को दी गई पर्चियां में से एक उठानी होगी। उसे पर जो भी लिखा होगा उस पर उन्हें मंच पर आकर करीब 3:30 मिनट तक बोलना था। क्या बोलना है यह सोचने के लिए उन्हें 2 मिनट का वक्त दिया जाएगा। प्रतिभागी एक के बाद एक आने लगे। अगले प्रतिभागी का नाम लेते हुए मंच पर खड़ी शिक्षिका बोलीं,
"अब आएंगे 9वी कक्षा के गणेश सिंह।"
अचानक नेता जी शशांक के कान में बोले, "जानते हो, यह उस मज़दूर का बेटा है जो मॉल में मर गया था। देखो ज़रा, हमारे विद्यालय में आकर किस तरह इसकी प्रतिभा को निखारा जा रहा है।"
नेताजी की आंखें गर्व से चमक रही थीं। शशांक ने हंसकर हां में सिर हिला दिया और फिर अपनी घड़ी देखी। बच्चा आया और उसने कुछ यूं बोलना शुरू किया, 
"नमस्कार साथियों। मैं गणेश सिंह, आज भाषण दूंगा 'मनुष्य के मन की सबसे गहरी' इच्छा पर। हम सभी जीवन में ईश्वर से कितनी चीज़ों की कामना करते हैं। इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती कि मनुष्य क्या-क्या मांग सकता है। सभी की अलग स्थिति, अलग ज़रूरत और अलग इच्छा। परंतु मेरे मतानुसार अगर एक चीज़ है जो यदि मुमकिन होती तो हम सभी ईश्वर से मांगते, वह है समय। हम सभी चाहते उम्र भर का समय उनके साथ जिन्हें हम चाहते हैं, जिनसे प्यार करते हैं; समय उनके साथ जो आज हमारे साथ नहीं हैं। मैं भी यही चाहता..."
शशांक के पास बैठे नेताजी बालक के वाक्य से ज़रा असहज हो उठे। वह आगे बढ़ा, "... मेरे पिता के साथ। मैं किसी धनासेठ का पुत्र नहीं। मेरे पिता अमीर नहीं थे। पर जब वे थे, तब मैं संसार के सबसे खुशहाल लोगों में से एक था। हां मैं तब यह नहीं समझता और अक्सर शिकायतें करता था..."
नेताजी की असहजता बढ़ती जा रही थी।
"... पर सब कुछ बदल गया करीब डेढ़ साल पहले। मैं..."
अचानक घंटी बजी और बालक को जाने का आदेश दे दिया गया। शशांक जो अब तक बच्चों के शब्दों कहीं खो गया था, उसने अपनी घड़ी देखी तो मालूम हुआ कि अभी तो सिर्फ ढाई मिनट हुआ था। कुछ पल पहले तक जो असहजता नेताजी महसूस कर रहे थे अचानक अब शशांक को होने लगी। वह कुछ बहाना बनाकर सभागार से बाहर आया और विद्यालय के मैदान में एक पेड़ के नीचे बैठ गया। आज इतने सालों में पहली बार अपनी नौकरी को लेकर मन में सवाल आया। वह भी कभी एक बच्चा था; उसने भी कभी अपना बचपन खोया था जिस दिन पिता का हाथ छूटा था। फिर कैसे वह ऐसे लोगों के लिए काम करता चला गया जिन्होंने एक बच्चे से उसका बचपन छीन लिया?...जिन्होंने एक बच्चे के पिता की जान की कीमत लगा दी?
प्रतियोगिता खत्म हुई और सभी लौट गए। सब कुछ वैसा ही हो गया। पर शशांक की बेचैनी हर दिन बढ़ती रही। उस बच्चे का चेहरा हर रोज़ उससे सवाल करता। आखिर इस बेचैनी से निकलने का कोई तरीका ना सूझा तब उसने नौकरी ढूंढनी शुरू की। बहन की स्नातक की पढ़ाई पूरी होने में कुछ महीने शेष थे। वह अपनी नौकरी छोड़ बेरोज़गार नहीं बैठ सकता था। अच्छी शैक्षिक उपलब्धियां के चलते एक अच्छे विद्यालय में शिक्षक की नौकरी लगी और आखिरकार शशांक ने नेताजी से विदा ली। अब वह अपनी नौकरी के साथ लेखन पर भी ध्यान देने लगा। स्वरचित कविताओं का संग्रह कर उन्हें छपवाने लगा।

सालों बीत गए। मां अब ना रही, अपनी और बहन की शादी हो चुकी। वक्त तेज़ी से बदलता गया था। कभी शिक्षक रहा शशांक अब प्राध्यापक था। कवि के रूप में भी नाम कमा चुका था। एक दिन खबर आई कि नेता जी ना रहे। उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने पहुंचा तब मुलाकात हुई उस युवा से जो पिछले कुछ वक्त से उनके भाषण लिखता था। इन्हीं भाषणों के दम पर नेता जी मंत्री जी बने थे। यह युवा था गणेश सिंह। सालों पहले कुशासान, बेईमानी और धोखाधड़ी के कुचक्र से शशांक को बाहर निकालने वाला बालक आज स्वयं उसका हिस्सा बन बैठा था। 
घर आया, चाय नाश्ता कर मेज़ पर बैठा। न जाने कब हाथों ने कलाम को थामा और अपने आप चलने लगे। जब सुध आई तो पढ़ा, कागज़ पर कुछ यूं लिखा था,

"खट्टे मीठे आम के पेड़ पर चढ़कर, 
तोड़ ले खट्टी केरी और कुछ मीठे पल।
ऐ मेरे मन! 
फिर बच्चे सा बन जा चल।

आज फिर आंगन में खिलखिला कर उछल। 
आज फिर बन जा गिलहरी सा चंचल।
ऐ मेरे मन! 
फिर बच्चे सा बन जा चल।

कहाँ ढुंढूं अच्छाई और मासूमियत? 
मन बच्चों का ही साफ है इस मैले से जहां
 में केवल।
ऐ मेरे मन! 
फिर बच्चे सा बन जा चल।"