आज अश्रुओं से हैं नैन भरे,
अक्सर भीग जाता है कंठ तुम्हारा।
पर इस पृथ्वी पर चुनौतियां देखी उन्होंने भी
जिन्होंने रचा ये ब्रह्मांड सारा।
वह भी तो है ढलता हर शाम,
देखो उस सूरज को ज़रा।
यह जानते कि चांद में भी
उसके तेज़ से है नूर भरा।
क्यों करें प्रतीक्षा सहर की सदैव?
क्यों ना मैत्री हो निशा से भी?
रहे अडिग हर दुविधा में,
हो ऐसी शक्ति तृषा में भी।
चक्र काल का घूम रहा
सरपट एक रफ़्तार पकड़।
ज़िंदगी है दौड़ी जा रही
तेज़, मगन और अल्हड़।
कौन पकड़ पाया समय को?
कौन सका इसके रंगों को जान?
बस चले कर्म की राह पर जो
जान सके इसके भेद विद्वान।
आज पथरीली डगर तो क्या
इस पर भी हमें चलना है।
है निःसंदेह अंधकार अभी,
पर हमें दीपक बन जलना है।
जीवन की पुस्तक में पृष्ठ पड़े
जिन्हें अभी तुम्हें भरना है।
चल उठ बंदे कलम को थाम
साहस का नया पैमाना गढ़ना है।