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Friday, May 24, 2024

सरहद

एक देश है मन मेरा, 
और दूजा है तुम्हारा। 
एक ही धरती पर; एक आकाश तले, 
बसता है कुटुंब हमारा। 

पर इन देशों को बांटती
एक कंटीली सरहद है,
जिसके कांटों में भरा है 
अहंकार तुम्हारा और हमारा। 

तेरे आसपास जो कुदरत है,
मेरा जीवन भी चलाए वही।
पर यह जो कंटीली सरहद है 
कहां पहचाने गलत-सही?

यह दौड़ी जाए समंदर में,
यह तो बांटना भी चाहे किनारा।
यह बढ़ती हर बार जब बढ़ता 
अहंकार तुम्हारा और हमारा। 

एक वक्त वह भी था जब 
ये सरहद हुआ न करती थी।
एक प्रेम की नदी बहकर यहां‌ 
मन का हर कोना भरती थी।

आज नदी वो सूखी जा रही,
बंजर हुआ जा रहा हर नज़ारा।
केवल वो सरहद खिल रही,
जिसे सींचता है...
अहंकार तुम्हारा और हमारा।

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